- कालसर्प शांती १ दिन में कि जाती है|
- कृपया मुहर्त के एक दिन पहले सभी लोग श्याम ६ बजे तक पहुच जाये |
- पूजा अवधि - २-३ घंटे
लग्न से लेकर सप्तम भाव पर्यन्त राहु-केतु के मध्य या केतु- राहु के मध्य फंसे ग्रहों के कारण 'अनन्त कालसर्पयोग बनता है । ऐसे जातक को व्यक्तित्व निर्माण के लिये, आगे बढ़ने के लिये काफी संघर्ष करना पडता है । इसका प्रभाव इनके गृहस्थ जीवन पर भी पडता है तथा इनका वैवाहिक जीवन कष्टमय होता है । ऐसा मनुष्य अपने कुटुम्बियों से नुकशान पाता है । मानसिक परेशानी पीछा नहीं छोडती । एक के बाद एक अनन्त मुसीबत आती ही रहती है । अपने व्यक्तित्व निर्माण हेतु निरन्तर संघर्ष बना रहता है।
द्वितीय स्थान से अष्टम पर्यन्त पडे ग्रह स्थिति के कारण कुलिक नामक कालसर्पयोग बनता है । इस योग के कारण धन को लेकर जातक के जीवन में संघर्ष रहता है । अपयश, परेशानियां तथा खर्च की बाहुल्यता रहती है । पैसा पास में टिकता नहीं । स्वास्थ्य में नरमा-गरमी बनी रहती है । यह योग ज्यादा पीडादायक है । दिमाग गर्म रहता है । निरन्तर परेशानी के कारण व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है । धन प्राप्ति हेतु किये गये प्रयासों मे सफलता नहीं मिलती । व्यक्ति कुलिन होते हुए भी कंगाल हो जाता है ।
तृतीय से नवम स्थान पर्यन्त वाली ग्रह-स्थिति के कारण वासुकी नामक कालसर्पयोग बनता है । इस योग के कारण जातक को कुटुम्ब, भाई-बहनों की ओर से परेशानी रहेती है । मित्रों से धोखा मिलता है । नौकरी-धन्धे में उलझने बनी रहती है । भाग्य का पूर्ण सुख नहीं मिलता । धन कमाता है पर बदनामी साथ लगी रहती । आत्मीय परिजनो के कारण कोई न कोई मुसीबत एवं मानसिक तनाव बना रहता है । किसी काम में यश नहीं मिलता। यश, पद-प्रतिष्ठा व पराक्रम प्राप्ति के लिए संघर्ष बना रहता है।
चतुर्थ से लेकर दसम स्थान पर्यन्त राहु-केतु के मध्य कैद ग्रह-स्थिति के कारण शंखपाल नामक कालसर्पयोग बनता है। इस योग के कारण सुख में बाधा। माता, वाहन, नौकर -चाकर को लेकर परेशानी रहेगी । पिता या पति की ओर से कष्ट, विद्याध्ययन में तकलीफ । व्यापार-व्यवसाय में नुकशान की सम्भावना बनी रहती है । अपने ही आदमी जिस पर ज्यादा भरोसा है विश्वास घात करेगे । दिमागी परेशानी एवं तनाव की स्थिति रहेगी। कितना ही प्रयल करले पर सुख प्राप्ति में निरन्तर बाधा व संघर्ष की स्थिति रहेगी।
पांचवें स्थान से ग्यारहवें स्थान तक बनने वाले कालसर्प योग को पद्म काल सर्प योग कहते हैं। इस योग से पीड़ित व्यक्ति आर्थिक व शारीरिक रूप से हमेंशा परेशान होता है, मुख्यतौर से उनको संतान संबंधी कष्ट भी होता है या तो उसे संतान का सुख मिलता ही नहीं है और अगर मिल भी जाये तो वह बहुत ही दुर्बल व रोगी होती है तो उनको भी कालसर्प ओर पितृदोष होता है।
पंचम स्थान से लेकर एकादश पर्यन्त ग्रह स्थिति के कारण पद्म नामक कालसर्पयोग बनता है । ऐसे जातक के विद्याध्यन में रुकावट आती है । सन्तान पक्ष में रूकावट होती है । पुत्र सन्तान की चिन्ता रहती है । गुप्त शत्रु बहुत रहते है । परिवार में अपयश । जीवनसाथी विश्वासपात्र नहीं मिलता, वंशवृद्धि की चिन्ता विशेष रहती है । लाभ प्राप्ति में रूकावट, निरन्तर चिन्ता व कष्ट के कारण जीवन संघर्षमय बना रहता है । जिस कार्य में हाथ डालों असफलता हाथ लगती है ।
सप्तम स्थान से लग्न (प्रथम भाव) तक राहु केतु के बीच फंसे ग्रहों के कारण तक्षक नामक कालसर्पयोग बनता है । ऐसे व्यक्ति का वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण रहता है । जीवन साथी से बिछोह । प्रेम प्रसंग में असफलता मिलती है । बनते कार्यो में रूकावट आती है । बडा पद मिलते-मिलते रह जाता है । गुप्त प्रसंग एवं भागीदारों से घोखा होने की सम्भावना अधिक रहती है । कोई न कोई कारण से मानसिक परेशानी व चिन्ता पीछा नहीं छोडती ।
अष्टम स्थान से लेकर धनस्थान (तितीय भाव) तक पडने वाली ग्रहस्थिति के कारण कर्कोटक' नामक कालसर्पयोग बनता है । इस योग के कारण जातक को अल्पआयु, दुर्घटना का भय रहता है । स्वास्थ्य की चिन्ता बनी रहती है । बात-बात पर धनहानि तथा उधार दिया हुआ पैसा डूब जाता है । शत्रु बहुत होते है । वाणी पर नियन्त्रण नही रहता । वाणी दूषित रहती है । परिश्रम बहुत करते है पर उसका फल मिलता नहीं । कुटुम्ब में अपयश एवं आत्मीय परिजनों में सन्मान नहीं मिलता।
नवम स्थान से तृतीय स्थान पर्यन्त पडने वाली ग्रह स्थिति के कारण शंखचूड नामक कालसर्पयोग बनता है । इसके कारण भाग्योदय में परेशानी, नौकरी व आगे बढने में रुकावटे । मित्रों द्वारा कपट-व्यवहार, व्यापार में घाटा, राज्यच्युत, नौकरी में अवनति का भय बना रहता है । अदालत से दण्ड की स्थिति भी बन सकती है। बहनोई या मामापक्ष से कपट व्यवहार होगा। कोई न कोई चिन्ता एवं परेशानी शरीर को लगी रहेगी । फूटे घडे में जिस प्रकार से पानी नहीं रहता उसी प्रकार से भाग्योदय हेतु किये गये प्रयलों में सफलता नहीं मिलती ।
दसम स्थान से चतुर्थ स्थान पर्यन्त ग्रसित ग्रहों के कारण 'घातक नामक कालसर्पयोग की सृष्टि होती है । इस योग के कारण व्यापार में घाटा, भागीदारी में एउमुटाव, सरकारी अधिकारियों से अनबन तथा सुख प्राप्ति के लिये भारी संघर्ष करना पडता है । परिवार में विग्रह रहता है । निरन्तर चिन्ता व परेशानी के कारण व्यक्ति का व्यवसायिक एवं गृहस्थ जीवन कष्टमय रहता
एकादश स्थान से पंचम स्थान पर्यन्त राहु/केतु के मध्य होने वाली ग्रहस्थिति से विषधर नामक कालसर्पयोग की निष्पत्ति होती है । इस योग के कारण ज्ञानार्जन में दुविधा होती है । उच्चशिक्षा में बाधा, स्मरण शक्ति का वास होता है । दादा-दादी, नाना- -नानी से पूर्ण लाभ की आशा होते हुये भी हानि होती है । काका व चचेरे भाईयों से झगडा रहता है । सन्तान बीमार रहते है । लाभ में भयंकर बाधा रहती है । व्यक्ति चिन्तातुर रहता है तथा धन के मामले को लेकर बदनामी या संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। परिवार में विग्रह रहता है ।
द्वादश स्थान से षष्टम स्थान पर्यन्त पड़ने वाले ग्रह योग के कारण शेषनाग नामक कालसर्पयोग की सृष्टि होती है । इस योग के कारण जन्मस्थान व देश से दूरी, सदैव संधर्षशील स्थिति, नेत्रपीडा, निंदा न आना तथा अन्तिम जीवन रहस्यपूर्ण बना रहता है । ऐसे जातक के गुप्त शत्रु बहुत होते है परन्तु ऐसे जातक को मृत्यु के उपरान्त ही ख्याति मिलती है । निराशा अधिक रहती है मनचाहा काम पूरा नहीं होता। यदि कार्य होता है तो बहुत देरी से होता है। मानासिक उद्विग्नता के कारण दिल-दिमाग परेशान रहता है । धन की भारी चिन्ता एवं कर्जा उतारने हेतु किये गये प्रयासो में सफलता नहीं मिलती ।